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“पनपता पिंड़ कहाँ से” : भावना ठाकर ‘भावु’

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“पनपता पिंड़ कहाँ से”
गगन गोश से गिर गया
एक परिंदा छटपटाते
अपनी ही माँ की कोख ने
पनाह देने से मना किया
पनपता पिंड़ कहाँ से
कहना नहीं किसीसे
भ्रूण था अजन्मी बेटी का
कण-कण होते कट गया
थामा नहीं किसीने
स्पर्म की दौड़ में पहली आई
बिंध दिया अंडे को
रास कहाँ आती ऊँचाई
बेटे बनाम बेटी की
लालन-पालन जमकर होता
होता जो बेटा गर्भ में
तनया टूटकर बिखर गई
बेटे की चाह के आगे
बनना था जिसे घर की शोभा
कुल को आगे बढ़ाते
दावत बन गई कुत्तों की
बन कूड़ेदान की शोभा
विडम्बना ये कैसी जग की
जिनके दम पर धरती थमी
जगदाधार जानकी वही
अनमनी बन भटक रही।

भावना ठाकर ‘भावु’ बेंगलोर

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