NATIONAL NEWS

विकास और महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य के चुनावी नतीजों में भारी रहा संप्रदाय और हिंदुत्व

FacebookWhatsAppTelegramLinkedInXPrintCopy LinkGoogle TranslateGmailThreadsShare

डॉ मुदिता पोपली

विकास और महंगाई जैसे मुद्दों पर राज्य के चुनावी नतीजों में भारी रहा संप्रदाय और हिंदुत्व
डॉ मुदिता पोपली
सांप्रदायिकता और विकास की चुनावी लड़ाई में सांप्रदायिकता का पलड़ा ही सदैव भारी रहा है। शायद यही कारण है कि हिंदुस्तान में सांप्रदायिक तौर पर तैयार वोटर को महत्वपूर्ण मुद्दे पेट्रोल, डीज़ल की कीमतें,रोजमर्रा की समस्याओं से भी रिझाया नहीं जा सकता।
भारत में समाज का एक बहुत बड़ा वर्ग सांप्रदायिकता के रोग से इतना ग्रसित है कि उन्हें उसके आगे उसे सारे मुद्दे फीके लगते हैं ।हाल ही में आए विधान सभा चुनाव परिणामों पर गौर करें तो यह ऐसा प्रतीत होता है कि ये महज धर्मांध लोगों की तैयार जमीन है जो निजी जीवन में हिंदू चरमपंथ का प्रचार करते है। ऐसा मानसिक रूप से हिंदुत्व नियंत्रित कार्यकर्ता ‘आलू-प्याज़’ की क़ीमतों से कभी आकर्षित नहीं हो सकता।
हिंदुस्तान की त्रासदी है कि अतीत की सरकारों में भी जनता ने कथित ‘विकास’ को कभी चखा नहीं, उसके लिए विकास का स्वर्णिम काल कभी रहा ही नहीं।उनके लिए मायने रहा तो सदैव जाति और धर्म। इसलिए अतीत में सरकार बनाने वाली आज की विपक्षी पार्टियाँ उसे आकर्षित नहीं करतीं। रोज़गार, अस्पताल, शिक्षा जैसे मुद्दे उसे आकर्षित तो करते हैं परंतु इन के दम पर वोट नहीं मिलते।
कहने को धर्मनिरपेक्ष भारत के बहुसंख्यक हिंदुओं के मन में “मुसलमान” को “कॉमन-दुश्मन” की तरह स्थापित किया गया है । उनके दिमाग में हर रोज़ मुस्लिमों के ख़िलाफ़ अनर्गल ठूँसा जा रहा है, ताकि यह भय बना रहे कि मुसलमान आ जाएँगे इसलिए इस पार्टी विशेष को रोक दो। यही कारण है कि उसे कोई कितना भी समझाए कि सिलेंडर की क़ीमतें हज़ार पार कर गईं, उसे फ़र्क़ नहीं पड़ता।
ऐसा नहीं है कि आज की विपक्षी पार्टियों के शासन काल में भी बहुसंख्यक जनता का जीवन महंगाई, बेरोज़गारी और ख़राब क़ानून व्यवस्था में नहीं कटा है। इसलिए पुरानी विपक्षी पार्टियाँ जब उसे महंगाई, बेरोज़गारी की बात कहती हैं तो उनकी बात में भी उसे नैतिक वजन नहीं लगता। इसलिए आम मतदाता के दिमाग में फिर धर्म और हिंदुत्व हावी होने लगता है
जब भी भाजपा के विरुद्ध कोई बात की जाती है तो भाजपा की नीतियां कोई नहीं देखता, देखा जाता है तो केवल हिंदुत्व का “पासा” सोशल मीडिया के इस दौर में जनता को तैयार ग्राफ़िक्स मिलते हैं जिसमें विपक्षी नेताओं से सवाल किए जाते हों। कार्टून से लेकर फेसबुक इंस्टा और व्हाट्सएप के माध्यम से आभासी दुनिया की लड़ाई में उतर आते हैं ।
हालात इतने विकट है कि सांप्रदायिक रूप से तैयार भीड़ को हर रोज़ धर्म हिंदुत्व और पाकिस्तान की घुट्टी पिलाई जाती है। ऐसा व्यक्ति सिलेंडर, डीजल, पेट्रोल, सब्जी के दाम और किसी चीज से स्वयं को नहीं जोड़ता।वह जोड़ता है तो केवल अपनी जाति धर्म और समुदाय से
हालांकि विपक्ष के बहुत ज़ोर लगाने पर तस्वीरें कुछ बदलती ज़रूर हैं लेकिन अंत में सांप्रदायिक मुद्दा एक ज्वार भाटे की तरह सब कुछ गौण बना देता है। ऐसा भी नहीं है कि विपक्ष कमजोर है या विपक्ष के नेता कमजोर हैं लेकिन हमारी मानसिकता पर भारत के भविष्य से ज्यादा धर्म और सांप्रदायिकता हावी है
यही कारण है कि वर्तमान में भारत में कम्यूनल एजेंडे का जवाब दिए बिना कम्यूनल पॉवर को नहीं हराया जा सकता। इस समय बहुसंख्यक समाज भाजपा की चमत्कारिक लीडरशिप, साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों, मुसलमानों के प्रति नफ़रत और डर के ऊपर देशभक्ति की चासनी से ग्रसित है। उसे दोबारा से अपने विश्वास में लाने के लिए दमदार नेतृत्व की आवश्यकता है। मौजूदा वक्त हार-जीत से आगे जा चुका है। केंद्र और राज्य में सरकार तब ही बदलेगी जब जनता बदलेगी, और जनता तब बदलेगी जब सांप्रदायिकता पर देशभक्ति हावी होगी।
सांप्रदायिकता का मुक़ाबला करने के लिए
नई पार्टियाँ जो विकास को मुद्दा बना सकें,
सूचनाओं का नया तंत्र- मीडिया-सोशल मीडिया,
नई लीडरशिप के नेतृत्व में जन-सत्याग्रह तथा
सामूहिक चेतना का विकास आवश्यक है तभी सही मायनों में देश बदलेगा।

FacebookWhatsAppTelegramLinkedInXPrintCopy LinkGoogle TranslateGmailThreadsShare

About the author

THE INTERNAL NEWS

Add Comment

Click here to post a comment

error: Content is protected !!