मुदिता पोपली
“पत्रकारिता में आपकी जान जा सकती है, लेकिन जब तक आप इसमें है यह आपको जिंदा रखेगी”। -होरैस ग्रीले
हर वर्ष 30 मई को पत्रकारिता दिवस मनाया जाता है, जो भारत में हिंदी पत्रकारिता के जन्म का प्रतीक है। इसी दिन 1826 में पंडित युगल किशोर शुक्ल ने कोलकाता से ‘उदंत मार्तंड’ नामक पहले हिंदी साप्ताहिक अखबार का प्रकाशन आरंभ किया था। यह दिन केवल हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत की याद नहीं दिलाता, बल्कि पत्रकारिता के मूल्यों, उद्देश्यों और उसके बदलते स्वरूप पर पुनर्विचार करने का भी अवसर है।
स्वतंत्रता संग्राम के समय की पत्रकारिता विचारधाराओं, सामाजिक सुधार और जनजागृति का माध्यम थी। उस दौर में महात्मा गांधी, बाल गंगाधर तिलक, गणेश शंकर विद्यार्थी जैसे नेताओं ने पत्रकारिता को एक आंदोलन का स्वरूप दिया। पत्रकारिता का लक्ष्य था – सच को सामने लाना, जनमत तैयार करना और सत्ता को जवाबदेह बनाना।
पत्रकारों का दायित्व राष्ट्र निर्माण से जुड़ा हुआ था। समाचार पत्रों में विज्ञापन कम और विचार ज्यादा होते थे। संपादकीय पृष्ठ जनचेतना का आधार बनते थे। एक आदर्श पत्रकार सत्य, तटस्थता और नैतिकता के स्तंभों पर खड़ा होता था।
1990 के दशक के बाद भारत में उदारीकरण, निजीकरण और वैश्वीकरण की नीतियों ने मीडिया में बड़ा बदलाव लाया। प्रिंट मीडिया के साथ-साथ इलेक्ट्रॉनिक मीडिया का तेजी से विस्तार हुआ। 24×7 न्यूज़ चैनल्स की शुरुआत ने खबरों को तात्कालिकता और स्पर्धा के युग में धकेल दिया।
फिर आया डिजिटल युग। इंटरनेट, स्मार्टफोन और सोशल मीडिया प्लेटफॉर्म्स (जैसे फेसबुक, ट्विटर, यूट्यूब, इंस्टाग्राम) ने पत्रकारिता को आम आदमी के हाथ में सौंप दिया। अब हर व्यक्ति रिपोर्टर भी है और दर्शक भी।
आज पत्रकारिता केवल अखबारों और टीवी तक सीमित नहीं रही। डिजिटल मीडिया पोर्टल्स, पॉडकास्ट, वी-लॉग्स और डेटा जर्नलिज्म जैसे नए रूप सामने आए हैं। रिपोर्टिंग के नए औजार – ड्रोन कैमरा, एआई बेस्ड विश्लेषण, फैक्ट-चेकिंग टूल्स – ने रिपोर्टिंग को अधिक सशक्त और सटीक बनाया है।
साथ ही, यूजर जेनरेटेड कंटेंट और सिटिजन जर्नलिज्म ने भी सूचनाओं का लोकतंत्रीकरण किया है। अब खबरें केवल शीर्ष स्तर से नीचे नहीं जातीं, बल्कि नीचे से ऊपर भी आती हैं।
बदलावों के साथ पत्रकारिता के सामने कई गंभीर चुनौतियाँ भी खड़ी हुई हैं जैसे फेक न्यूज़ और अफवाहें: सोशल मीडिया पर वायरल खबरों की सत्यता की पुष्टि करना एक बड़ी चुनौती बन चुका है।
टीआरपी और क्लिकबेट संस्कृति: समाचार का उद्देश्य सूचना देना नहीं, ध्यान खींचना बनता जा रहा है। कॉरपोरेट और राजनीतिक दबाव: अनेक मीडिया हाउस किसी न किसी कॉरपोरेट या राजनीतिक शक्ति के प्रभाव में काम करते हैं, जिससे निष्पक्षता पर प्रश्न उठते हैं। ग्रामीण और हाशिए के क्षेत्रों की उपेक्षा: शहरी और ग्लैमरस खबरों की भरमार ने ग्रामीण भारत की आवाज को पीछे धकेल दिया है।
हाल के वर्षों में ग्रासरूट जर्नलिज्म और वैकल्पिक मीडिया प्लेटफॉर्म्स ने फिर से पत्रकारिता के सामाजिक सरोकारों को जीवित किया है। युवाओं, महिलाओं और स्थानीय संवाददाताओं की भागीदारी से नई तरह की संवाद संस्कृति विकसित हो रही है।
साथ ही, RTI एक्ट, फैक्ट-चेकिंग संगठनों और मीडिया लिटरेसी अभियानों ने भी पत्रकारिता की जवाबदेही को मजबूती दी है।
इसलिए पत्रकारिता दिवस केवल उत्सव नहीं, आत्ममंथन का भी अवसर है। हमें तय करना होगा कि हम पत्रकारिता को एक जनसेवा, सत्य खोज और लोकतंत्र के प्रहरी के रूप में देखना चाहते हैं या केवल मनोरंजन और मुनाफे का माध्यम।
भारत की पत्रकारिता ने एक लंबा और प्रेरणादायक सफर तय किया है। बदलते समय में उसका स्वरूप बदला है, लेकिन उसकी आत्मा – सत्य, साहस और समाज – आज भी उतनी ही प्रासंगिक है। पत्रकारिता दिवस के इस अवसर पर यही कामना है कि हर पत्रकार – चाहे वह प्रिंट, टीवी, डिजिटल या ग्रामीण मीडिया में हो – अपने मूल्यों और जिम्मेदारियों को याद रखे।
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