“शरबत का संग्राम: मधुपराका बनाम रूह अफजा
आलेख : मुदिता पोपली
भारत, जहां गर्मी के मौसम में तापमान 45 डिग्री छूता है, वहां प्यास बुझाने का सवाल धर्म, दर्शन और वैचारिक युद्ध बन जाए, तो समझिए हम ‘शरबत युग’ में प्रवेश कर चुके हैं। जी हां, अब सवाल यह नहीं है कि आप क्या पीते हैं, सवाल यह है कि आप किस विचारधारा को घूंट-घूंट निगल रहे हैं।
बाबा रामदेव, योगगुरु से अब “शरबत सम्राट” बनने की ओर अग्रसर हैं। हाल ही में उन्होंने एक भावप्रवण उद्घोषणा की — “टॉयलेट क्लीनर मत पीजिए भाई, हमारे पास मधुपराका है!” अब यह मधुपराका क्या है? यह एक ऐसा शरबत है जो आपको सिर्फ ताजगी नहीं, बल्कि गुरुकुल की महक, वेदों की मिठास और पतंजलि की पैकिंग में सनातन की सौंध लेकर आता है।
पर बाबा यहीं नहीं रुके। उन्होंने शरबत को धर्मसंग्राम में बदल दिया। उन्होंने रूह अफजा को उस खेमे में खड़ा कर दिया, जहां मस्जिदें, मदरसे और मजहबी हवाएं बहती हैं। और खुद के बनाए शरबत को खड़ा कर दिया वहां, जहां गुरुकुल की धूप, यज्ञ की अग्नि और भगवा रंग की बर्फ मिली हुई है।
अब सोचिए, एक आम भारतीय जो पसीने में भीगा हुआ पानी की बोतल तलाश रहा था, अब उसके सामने यह दार्शनिक सवाल है— क्या तू मस्जिद का शरबत पिएगा या गुरुकुल का?
सड़कों पर अब ठेले वाले भी दो लाइन में बंट गए हैं — एक लाइन रूह अफजा वालों की, दूसरी मधुपराका के भक्तों की। बीच में खड़ा आम आदमी सोच रहा है, “भैया, कोई नींबू पानी दे दो… मुझे धर्म नहीं, सिर्फ ताजगी चाहिए।”
एक समय था जब दादी कहती थीं — बेटा, दोपहर में बाहर मत निकलना, लू लग जाएगी। अब कहती हैं — बेटा, रूह अफजा पीया तो पड़ोस में मत बताना, फूफा जी संघ से हैं।
राजनीतिक गलियारों में भी गर्मी बढ़ चुकी है। एक पक्ष कह रहा है, “यह शुद्धिकरण का युग है, शरबत तक में राष्ट्र निर्माण होना चाहिए।” दूसरा पक्ष कह रहा है, “भाई, ये तो पीने की चीज थी, अब पीते-पीते भी धर्म तय होगा क्या?”
और सोशल मीडिया? वहां हर ग्लास पर वोट डाले जा रहे हैं। एक ट्वीट में लिखा था — “मैंने रूह अफजा पिया और मुझे सेक्युलर बुखार चढ़ गया, डॉक्टर ने मधुपराका पिलाया, तब जाकर चेतना लौटी।”
सच कहें, तो भारत में अब मधुपराका बनाम पनाका सिर्फ एक स्वाद का विकल्प नहीं, संविधान की नई प्रस्तावना बन चुका है।
और अंत में, बाबा रामदेव के शब्दों में — “यह व्यापार नहीं, वसुधैव कुटुंबकम है।”
जी हां बाबा, और अगर किसी ने गलती से पेप्सी पी ली, तो शायद उसे राष्ट्रद्रोह की चेतावनी भेज दी जाए!
तो अगली बार जब आप प्यास से बेहाल हों, तो यह मत सोचिए कि क्या ठंडा मिलेगा — यह सोचिए कि आपकी आत्मा किस वैचारिक शरबत से तृप्त होना चाहती है। क्योंकि अब प्यास बुझाना भी एक वैचारिक क्रांति है।
“शरबत का संग्राम: मधुपराका बनाम रूह अफजा By Dr Mudita Popli

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