यूनिफॉर्म सिविल कोड सीरीज, पार्ट-2:हिंदू अनगिनत शादियां कर सकते थे, इस्लाम में मौखिक तलाक हो जाता था; कैसे बदले पर्सनल लॉ
1889 का एक चर्चित केस है। महज 10 साल की बंगाली लड़की फुलमनी दासी की शादी 30 साल के हरिमोहन से हो गई। सुहागरात के बाद फुलमनी की मौत हो गई। पोस्टमार्टम रिपोर्ट में पता चला कि मौत की वजह जबरन संबंध बनाने से हुई इंजरी थी।
हरिमोहन पर रेप का केस दर्ज हुआ। 1890 में कलकत्ता सेशन कोर्ट में ट्रायल शुरू हुआ, लेकिन मामले में एक पेंच फंस गया। दरअसल, IPC के सेक्शन 375 में पत्नी के साथ किए गए जबरन सेक्स को भी रेप न मानने का प्रावधान था।
उस वक्त शादी की न्यूनतम कानूनी उम्र 10 साल थी और फुलमनी उसे पार कर चुकी थी। इसलिए हरिमोहन को सिर्फ 1 साल की सजा मिली। हालांकि, इस केस ने आने वाले वक्त में सहमति से सेक्स की उम्र बढ़ाने का रास्ता खोल दिया।
यूनिफॉर्म सिविल कोड सीरीज की दूसरी स्टोरी में जानिए हिंदू और मुस्लिम पर्सनल लॉ में समय के साथ कैसे बदलाव हुए और आज ये किस रूप में मौजूद हैं।
प्राचीन भारत में कानून व्यवस्था वेदों, स्मृतियों और रीति-रिवाजों के आधार पर चलती थी। मध्यकाल में जब मुसलमान भारत आए तो धर्म के साथ अपना लीगल सिस्टम भी लाए। क्रिमिनल मामलों में शरीयत का कानून चलता था और सिविल मामलों के निपटारे के लिए बहुत स्पष्ट नियम नहीं होते थे। ज्यादातर विवाद गांव-समाज के स्तर निपट जाते थे।
शरीयत कानून बेहद सख्त था। इसमें चोरी के लिए हाथ काट देने जैसी सजा और किसी का मर्डर भी दोनों के आपस का विवाद माना जाता था। जिसमें पीड़ित के परिजन चाहें तो मर्डर माफ कर सकते थे या सेटलमेंट कर सकते थे। मुस्लिम लॉ के बहुत बड़े जूरिस्ट एए फैजी ने लिखा- भारत में इस्लामिक लॉ या शरिया अपने प्योर फॉर्म में कभी लागू नहीं किया गया।
बदलाव की शुरुआत हुई अंग्रेजों के आने के बाद। 1765 में ईस्ट इंडिया कंपनी को बंगाल, बिहार और ओडिशा के रेवेन्यू राइट्स मिल गए। इससे सिविल मामलों का पूरा न्याय प्रशासन ईस्ट इंडिया कंपनी के हाथ आ गया। वॉरेन हेस्टिंग्स ने 1772 में गवर्नर जनरल बनते ही एक नया ज्यूडिशियल प्लान और कोर्ट्स बनाने शुरू किए।
अंग्रेजों ने धार्मिक ग्रंथों का ट्रांसलेशन में लापरवाही की
अंग्रेजों ने दावा किया कि अब हिंदुस्तानियों के बीच जो भी विवाद होंगे उसका समाधान हम करेंगे। अब सवाल उठा कि फैसलों का आधार क्या होगा। अंग्रेजों ने तय किया कि क्रिमिनल मामले फिलहाल शरीयत के आधार पर ही तय होंगे। सिविल मामलों को निपटाने के लिए अलग-अलग धर्मों के लीडर्स का सहारा लिया जाएगा।
मुस्लिमों में विवाद होने पर उलेमाओं से राय ली जाती थी। हिंदुओं में विवाद होने पर पंडितों से बात की जाती थी। (इलस्ट्रेशनः गौतम चक्रबर्ती)
अगर हिंदू और मुस्लिम का आपस में झगड़ा हुआ तो डिफेंडेंट यानी जिस पर आरोप लगा है वो जिस धर्म का है उसके मुताबिक तय होगा। धर्म एक होने के बावजूद लोगों के रीति-रिवाजों में बड़ा फर्क था। इससे अंग्रेज कंफ्यूज होते थे।
18वीं सदी जाते-जाते अंग्रेजों ने हिंदुओं लॉ और मुस्लिम लॉ का कोडिफिकेशन करना शुरू किया। इसके लिए मुस्लिमों और हिंदुओं के धार्मिक ग्रंथों के ट्रांसलेशन का प्रोजेक्ट शुरू किया। इस्लाम के लिए अंग्रेजों ने हनफी कानून की किताब अल-हिदाया का ट्रांसलेशन करवाया।
इसी तरह हिंदू लॉ के लिए हिंदू स्मृति, याज्ञवल्क्य स्मृति और वेदों का ट्रांसलेशन कराया। ट्रांसलेटर चॉर्ल्स हैमिल्टन को अरबी नहीं आती थी, इसलिए पहले अरबी का फारसी में अनुवाद कराया गया फिर फारसी से अंग्रेजी में।
क्रिमिनल लॉ का कोडिफिकेशन और हिंदू लॉ में दखल
1828 में लॉर्ड विलियम बैंटिक गवर्नर जनरल बने। उस वक्त भारत में सती प्रथा का चलन था। जिसमें पति की मौत के बाद विधवा को पति की चिता में जलना होता था। राजा राममोहन राय जैसे कुछ समाज सुधारक इसे रोकने का प्रयास कर रहे थे।
19वीं सदी तक भारत में सती प्रथा का चलन था। 1829 में लॉर्ड बैंटिक सती प्रथा उन्मूलन अधिनियम लेकर आए। (इलस्ट्रेशनः गौतम चक्रबर्ती)
1834 में भारत में पहला लॉ कमीशन बनाया गया। इसके अध्यक्ष लॉर्ड मैकाले थे। मैकाले ने IPC का पहला ड्राफ्ट बनाया। इसके अलावा उन्होंने लेक्स लोसाइ यानी पूरे देश के लिए एक जैसे कानून का सुझाव दिया।
1853 में एक और चार्टर एक्ट आया और दूसरा लॉ कमीशन बना। इस लॉ कमीशन के अध्यक्ष थे सर जॉन रोमिली। उन्होंने CPC (सिविल कानून लागू करने की प्रक्रिया से जुड़े नियम), CrPC (सजा देने का प्रॉसेस और उससे जुड़े नियम) और IPC (किस अपराध के लिए क्या सजा हो, इससे जुड़े नियम) के ड्राफ्ट तैयार किए।
1861 में तीसरा लॉ कमीशन बना। इसने इंडियन एविडेंस एक्ट (सबूतों-गवाहों से जुड़े नियम), इंडियन कॉन्ट्रैक्ट एक्ट (नौकरी, खरीद-बिक्री से जुड़े नियम) और द ओथ ऐक्ट बनाए। इन कानूनों के आने के बाद 1873 तक भारत में क्रिमिनल लॉ का कोडिफिकेशन लगभग पूरा हो गया।
1891 में एज ऑफ कंसेंट एक्ट लाया गया। लड़कियों के लिए सहमति से सेक्स की न्यूनतम उम्र 10 साल से बढ़ाकर 12 साल की गई।
1929-30 में चाइल्ड मैरिज रेस्ट्रेंट एक्ट यानी शारदा एक्ट पारित हुआ जिसमें लड़कियों की शादी की न्यूनतम उम्र बढ़ाकर 14 साल और लड़कों की 18 साल की गई। (इलस्ट्रेशनः गौतम चक्रबर्ती)
1937 में ही एक बड़ा कदम उठाया जब शरीयत एक्ट 1937 पारित किया गया। इसमें मुस्लिमों की शादी और उत्तराधिकार से जुड़े नियम थे। 1939 में डिसॉल्यूशन ऑफ मुस्लिम मैरिज एक्ट पास हुआ। जिसमें मुस्लिम महिलाओं के तलाक के नियम तय किए गए। इसके अलावा मुस्लिम लॉ में न अंग्रेजों ने ज्यादा छेड़छाड़ की और न आजादी के बाद कोई खास बदलाव हुआ।
आजादी के बाद हिंदू कोड बिल
1951 में अंबेडकर ने नेहरू के समर्थन से हिंदू कोड बिल को संसद में पेश किया। इसके कुछ प्रमुख प्रावधान थे…
- हिंदुओं में मृत्यु के बाद विधवा, पुत्र और पुत्री में संपत्ति के बंटवारे से जुड़े नियम
- शादी से जुड़े प्रावधान, जिसमें हिंदू पुरुषों के एक से ज्यादा विवाह पर रोक
- हिंदू महिलाओं को तलाक का अधिकार
संसद में तीन दिन तक बहस चली। इसके विरोध में कहा गया कि सिर्फ हिंदुओं के कानून से छेड़छाड़ क्यों? संसद से बाहर करपात्री महाराज के नेतृत्व में एक बड़ा प्रदर्शन शुरू हो गया। उन्होंने इस बिल पर जवाहर लाल नेहरू को वाद-विवाद करने की खुली चुनौती दी। उनके साथ राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, हिंदू महासभा और दूसरे हिंदूवादी संगठन भी विरोध कर रहे थे।
तमाम विरोध और आम चुनाव नजदीक होने की वजह से नेहरू हिंदू कोड बिल को टाल गए। अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल समेत अन्य मुद्दों को लेकर कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया। हालांकि, बाद में नेहरू ने 1955 से 1958 के बीच हिंदू कोड बिल के प्रावधानों को कई हिस्सों में पारित करा लिया…
- हिंदू मैरिज एक्ट, 1955
- हिंदू सक्सेशन एक्ट, 1956
- हिंदू माइनॉरिटी एंड गार्जियनशिप एक्ट 1956
- हिंदू एडॉप्शन एंड मेंटिनेंस एक्ट, 1956
हिंदू मैरिज एक्ट आने के बाद ही हिंदुओं में एक शादी का नियम लागू हुआ। वरना 1955 से पहले हिंदू चाहे जितनी महिलाओं से शादी कर सकते थे। हिंदू लॉ में आखिरी बड़ा अमेंडमेंट 2005 में हुआ। जब हिंदू सक्सेशन एक्ट में बेटियों को भी पिता की संपत्ति में बेटों की तरह बराबर का हक दिया गया है।
आजादी के बाद सिर्फ एक बड़ा कानून पास हुआ जो मुस्लिम लॉ को इम्पैक्ट करता है। मुस्लिम महिला विधेयक, 2019 के तहत तीन तलाक के मामलों को दंडनीय अपराध माना गया।
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