REPORT BY SAHIL PATHAN
एक समय था जब बम और तोप से लड़ाई लड़ी और जीती जाती थी लेकिन विश्व युद्ध के दौरान सूचनाओं के जरिए दुश्मन को परास्त करने का प्रयोग काफी सफल रहा। खूब जासूसी हुई, नुकसान भी हुआ और आगे चलकर बाकायदे विभाग बने और आज भी Espionage के लिए Spy का इस्तेमाल होता है। यह कहानी एक भारतीय प्रिंसेस की है। वह मूल रूप से भारतीय थी लेकिन हिटलर की फौज के खिलाफ अंग्रेजों की जासूस बन गई।
नई दिल्ली: दुनिया आज उसे नाजियों से लड़ने वाली मुस्लिम राजकुमारी के तौर पर याद करती है। वह भारतीय प्रिंसेस थी जिसने दूसरे विश्व युद्ध में अंग्रेजों के लिए जासूसी की। एक दिन पकड़ी गई और नाजियों ने उसे गोली मार दी। भारत में भी शायद कम लोगों को पता हो कि वह राजकुमारी टीपू सुल्तान के खानदान से ताल्लुक रखती थी। मैसूर का वह मुस्लिम शासक जो 18वीं शताब्दी में राज करता था। इस जासूस राजकुमारी के बारे में दुनिया को तब ज्यादा जानकारी हुई जब 2006 में श्रबनी बसु ने एक किताब लिखी। आज भी अंग्रेज भारतीय मूल की अपनी इस महिला जासूस पर गर्व करते हैं। नाम था नूर इनायत खान। लंदन में कुछ साल पहले उनकी मूर्ति भी लगाई गई थी।
आपको थोड़ा हैरानी हो सकती है कि महाराजा टीपू सुल्तान ने अंग्रेजों के सामने झुकने से इनकार कर दिया था लेकिन उनकी वंशज ने बरतानिया हुकूमत के लिए ही जान की बाजी लगा दी। 1799 में अंग्रेजों के साथ लड़ते हुए टीपू सुल्तान मारे गए थे। नूर को कई भाषाओं का ज्ञान था। वह फर्राटे से फ्रेंच बोलती थीं। साल था 1943 और उन्हें ब्रिटेन की एक स्पेशल एजेंसी में शामिल किया गया। उन्हें एक बड़े मिशन पर फ्रांस भेजा गया। उनका काम इतना खतरनाक था कि कुछ लोगों को लगता था कि वह दो महीने भी जिंदा नहीं रह पाएंगी। नूर खुद राष्ट्रवादी और नेहरू-गांधी की प्रशंसक थीं लेकिन वह फासीवाद की खुलकर मुखालफत करती थीं।
मुस्लिम लड़की को यहूदी से इश्क
जासूसी से पहले वह कहानियां लिखा करती थीं। स्थानीय फ्रेंच रेडियो और मैग्जीन के लिए वह लिखती रहती थीं। 1 जनवरी 1914 को मॉस्को में नूर का जन्म हुआ था। उनके पिता इनायत खान एक सूफी टीचर और संगीतकार थे। मां अमीना बेगम ब्रिटिश थीं और उनका पुराना नाम ओरा बेकर था। प्रथम विश्व युद्ध शुरू होने के बाद परिवार उसी साल इंग्लैंड चला गया। भारत के पक्ष में उनकी विचारधारा के चलते अंग्रेजों ने निगरानी बढ़ा दी तो इनायत अपने परिवार को लेकर 1920 में पेरिस आ गए। 26 साल की उम्र तक नूर यहीं अपने तीन छोटे भाई-बहनों के साथ रहीं। 1927 में भारत यात्रा के दौरान उनके पिता की मौत हो गई। उस समय नूर मात्र 13 साल की थीं। उन पर पूरे परिवार की जिम्मेदारी आ गई थी।
1940 में नाजियों ने फ्रांस पर कब्जा कर लिया। नूर की लाइफ में अचानक तूफान आ गया और वह कई फ्रेंच लोगों के साथ ब्रिटेन भाग आईं। पहुंचते ही वह युद्ध की तैयारियों में जुट गई। यूके रॉयल एयरफोर्स में वह वायरलेस ऑपरेटर के तौर पर काम करने लगीं। वह सभी धर्मों को समान रूप से सम्मान देती थीं। नाजियों द्वारा यहूदियों पर अत्याचार ने उन्हें भीतर से झकझोर दिया। वह एक मुस्लिम थीं लेकिन उन्हें एक यहूदी शख्स से प्रेम हो गया।
अंग्रेजी की जासूस, पर दिल में था इंडिया
भले ही नूर नाजियों के खिलाफ अंग्रेजों की तरफ से थीं लेकिन वह भारत की आजादी के समर्थन में भी थीं। वह किसी भी प्रकार के दमन के खिलाफ थीं। उन पर लिखी गई किताब Spy Princess के मुताबिक नूर ने यूके आर्मी के अधिकारियों से कहा था कि एक बार जंग खत्म हो गई तो वह भारत की आजादी में योगदान करेंगी।
मुझे लगता है कि विश्व युद्ध में भारतीय इन अंग्रेजों का साथ देते हैं तो उन्हें भारत को आजादी देनी पड़ेगी।
– नूर ने मां को लिखा था खत
फ्रेंच भाषा पर मजबूत पकड़ होने के कारण नूर को स्पेशल ऑपरेशंस एक्जीक्यूटिव (SOE) में शामिल किया गया। यह एक सीक्रेट ब्रिटिश फोर्स थी जो यूरोप में नाजियों के खिलाफ स्थानीय विद्रोह में मदद के लिए जासूस भेजती थी। इस काम में जान का खतरा ज्यादा और वेतन मामूली था लेकिन नूर ने हामी भर दी। (फोटो- AI lexica)
कपड़े बदले, ठिकाना भी पर दोस्त ने दगा दिया
जून 1943 में नूर को Madeleine कोड नेम के साथ फ्रांस भेजा गया। खास बात यह है कि यूके की तरफ से तैनात की जाने वाली वह पहली महिला वायरलेस ऑपरेटर थीं। हालांकि उनकी तैनाती के कुछ दिन बाद ही फ्रांस के ‘प्रॉस्पर’ नेटवर्क के सभी बड़े एजेंट पकड़ लिए गए। इन्हीं को सपोर्ट करने नूर आई थीं। वायरलेस सेट भी जब्त कर लिए गए फिर भी अगले कुछ महीनों तक नूर अकेले फील्ड पर ऑपरेटर के तौर पर काम करती रहीं। उस समय इंग्लैंड से उन्हें बुलाया जा रहा था लेकिन वह अपने मिशन से पीछे नहीं हटीं। कई ठिकाने बदले, पोशाक भी बदलती रहीं।
उस समय नाजी जर्मनी ने एक सीक्रेट पुलिस बल तैयार कर रखा था जिसका नाम था गेस्टापो। नूर के साथियों ने ही उन्हें दगा दे दिया और Gestapo ने अक्टूबर में उन्हें पकड़ लिया। एक महीने बाद उन्हें जर्मनी ले जाया गया। गेस्टापो को लग रहा था कि नूर एक बेहद खतरनाक कैदी है, जिसने अब तक जर्मनी को कोई भी गोपनीय जानकारी नहीं दी थी। दो बार उसने भागने की भी कोशिश की। एक साल जेल में रखने के दौरान उसे काफी टॉर्चर किया गया। नूर को देख नाजी सैनिक भी हैरान थे। म्यूनिख के पास उसे एक कंसन्ट्रेशन कैंप में डाल दिया गया और एक दिन गोली मार दी गई। बड़े जासूसों की जब भी कभी चर्चा होगी, नूर का नाम भारत और इंग्लैंड में बड़े सम्मान के साथ लिया जाता रहेगा।
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