बात बराबरी की- पीरियड शर्म है, डर है, टैबू है:तभी तो पहली बार पीरियड हुआ और 14 साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली
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ये 1994 की गर्मिंयों की बात है। आठवीं की परीक्षाएं खत्म हो चुकी थीं और जून की तपती दोपहरियों में दिन भर सिर्फ खेलने, आम खाने और मौज करने का अनवरत सिलसिला चल रहा था। तभी एक दिन अचानक दोपहर में वो हादसा हुआ। खेल के बीच दौड़कर हाजत निपटाने पहुंची तो देखा कि जांघिया सुर्ख लाल हो रखा है। फ्रॉक में भी खून लग गया था। डर के मारे मेरे पैर वहीं जम गए। मुझे लगा कि मुझे कैंसर जैसी कोई बीमारी हो गई है और अब मैं बस मरने वाली हूं।
मां उस वक्त घर पर नहीं थीं। पापा से कुछ कहने-बोलने की न हिम्मत थी, न आदत। मां के घर लौटने तक अगले चार घंटे चार सदी की तरह बीते। मन-ही-मन मैं बस अपने आखिरी क्रिया-कर्म की कहानियां बुनती रही। मेरे मरने पर कौन-कौन दोस्त आएंगे, कौन रोएगा, कौन खुशी मनाएगा। अलका तो बहुत ही खुश होगी क्योंकि मेरे मरने के बाद उसे अब वो क्लास में फर्स्ट आएगी।
ऐसी बेसिर-पैर की दुख भरी कल्पनाओं का अंत इससे भी ज्यादा दुखद खबर के साथ हुआ, जब मां ने बताया कि ये तो नॉर्मल चीज है, लेकिन ये नॉर्मल चीज अब हर महीने होगी। इसे पीरियड्स कहते हैं और ये सब लड़कियों को होता है।
मां के मुंह से हर महीने वाली बात सुनकर ऐसा धक्का लगा कि मानो सबसे भरोसे के इंसान ने छत से धकेल दिया हो। इससे अच्छा तो ये कैंसर ही होता और मेरे मरने की कहानी ही सच्ची होती।
उसके बाद अगले चार दिन गहरी उदासी में बीते। मैं अपने आसपास हर लड़की, हर औरत को देखकर यही सोचती कि क्या इन्हें भी ये पीरियड होता है। ये सोचकर कि स्कूल में मेरी फेवरेट टीचर को भी ये होता है, मेरा दिल दुख से छलनी हो गया। वो तो इतनी अच्छी हैं, वो ये दुख डिजर्व नहीं करतीं। मुझे हर उस लड़की के लिए दुख हुआ, जो मुझे अच्छी लगती थी। हालांकि अपनी दुश्मन लड़कियों का सोचकर थोड़ा संतोष भी मिला।
चार दिन बीते, फिर चार साल। लेकिन पीरियड को लेकर मेरा दुख और उदासी नहीं बीती। हां, एक वक्त के बाद डर जरूर चला गया।
उस दोपहर मेरे साथ जो हुआ था, वो हादसा सिर्फ पीरियड नहीं था। असली हादसा ये था कि एक 13 साल की लड़की को पीरियड के बारे में कुछ भी पता नहीं था। उसे कभी किसी ने न बताया, समझाया, न इस आने वाली तकलीफ के लिए तैयार किया।
आज मुझे लगता है कि अगर ये बात मुझे पहले से पता होती और मैं मानसिक और भावनात्मक रूप से इसके लिए तैयार होती तो इतना धक्का न लगता।
पिछले गुरुवार को मुंबई में एक 14 साल की लड़की ने आत्महत्या कर ली। लड़की को पहली बार पीरियड्स हुए थे और उसे इस बारे में पहले से कुछ भी पता नहीं था। जाहिर है, शरीर से अचानक रिसने लगा खून उसके लिए एक सदमे की तरह था। यह सदमा इतना बड़ा था कि उसने अपनी जान ही ले ली। क्या पता उसके दिल पर क्या गुजर रही होगी, उसके मन में कैसे-कैसे डरावने ख्याल आ रहे होंगे, जो उसने इतना बड़ा कदम उठा लिया।
सोचकर देखिए, एक अबोध लड़की पीरियड की वजह से आत्महत्या कर ले तो क्या वजह सिर्फ पीरियड है या वजह कुछ और भी है।
असली वजह है अज्ञानता। वजह है पीरियड्स को लेकर पूरे समाज में व्याप्त शर्म और टैबू। वजह ये है कि आज भी हमारे समाज में पीरियड को लेकर खुलकर कोई बात नहीं होती। घर में, स्कूल में हर जगह इस विषय पर एक चुप्पी है। और चुप्पी से बढ़कर एक शर्मिंंदगी का भाव।
13 साल की उम्र में पीरियड को लेकर मुझे जो सबसे जरूरी बात बताई गई, वो ये थी कि इस बारे में किसी से बात मत करना। चुपके से पैड बदलना, चुपके से कपड़े धोकर, छिपाकर सुखाना, कपड़ों में दाग मत लगने देना। घर में किसी को भनक तक नहीं लगनी चाहिए कि हुआ क्या है। उस वक्त भी मेरे अबोध मन और अपरिपक्व शरीर को पहुंची तकलीफ से ज्यादा जरूरी था इस बात को सबसे छिपाकर रखना।
ये पीरियड से जुड़ा पहला और सबसे जरूरी ज्ञान था, जो मुझे दिया गया था।
उस 14 साल की लड़की को भी पीरियड के बारे में कुछ पता नहीं था। उसकी मां, टीचर्स या आसपास किसी ने कभी इसकी जरूरत ही महसूस नहीं की कि बच्ची को इस चीज के लिए तैयार करे।
हमारे समाज में बहुसंख्यक लोग आज भी अपनी बेटियों को इस बदलाव के लिए तैयार नहीं करते। उसे पहले से नहीं बताते। छोटी बच्चियों को जो भी इंफॉर्मेशन मिलती है, वो अपने साथ की हमउम्र लड़कियों से ही मिलती है। वो लड़कियां भी उतनी ही अबोध और अपरिपक्व होती हैं। पीरियड से जुड़ी जानकारियों से लेकर पहली बार पीरियड्स होने पर मेंटल-इमोशनल सपोर्ट के लिए आसपास के एडल्ट अनुभवी लोगों की अनुपस्थिति और छोटी बच्चियों की एक-दूसरे पर ही निर्भरता, बहुत खतरनाक है।
लड़कियों को उस वक्त एडल्ट सपोर्ट की जरूरत होती है। और ये सपोर्ट सिर्फ वयस्क महिला से नहीं आना चाहिए। ये सपोर्ट घर, स्कूल और समाज के माहौल में होना चाहिए। लड़की को हुआ पीरियड उस लड़की और उसकी मां के बीच का सीक्रेट नहीं होना चाहिए। घर के बाकी सदस्य जैसे पिता और भाइयों को भी इसका हिस्सा होना चाहिए। पीरियड कोई अपराध नहीं है। गलती, कमी, कमजोरी भी नहीं है।
घर में कोई बीमार हो, किसी को बुखार आ जाए, किसी के पैर में प्लास्टर चढ़ जाए तो क्या इसे सीक्रेट रखा जाता है। क्या पूरा परिवार उस वक्त बीमार व्यक्ति का संबल, मददगार बनकर नहीं खड़ा रहता। क्या उस वक्त उसे ज्यादा प्यार-दुलार नहीं मिलता।
वैसे ही अगर 12-13 साल की बच्ची के शरीर से पहली बार खून रिस रहा है तो उस बच्ची के लिए यह बहुत बड़ी बात है। शरीर और मन, दोनों को इस बदलाव को स्वीकारने में बहुत वक्त और मेहनत लगती है। ऐसे नाजुक समय में पिता को, भाई को, दादा-दादी को और पूरे परिवार को लड़की के साथ क्यों नहीं होना चाहिए।
पीरियड को नॉर्मलाइज क्यों नहीं किया जाना चाहिए। माता-पिता को साथ बैठकर बड़े होते बच्चों से इस बारे में बात क्यों नहीं करनी चाहिए। सिर्फ लड़की से नहीं, बल्कि लड़का और लड़की दोनों से।
पीरियड को इतना हौव्वा बनाकर क्यों रखना चाहिए। ये टैबू क्यों होना चाहिए कि छोटी बच्ची पीरियड की तकलीफ तो झेले ही, साथ ही शर्मिंदगी का बोझा भी लादे रहे। हर वक्त इसी डर और फिक्र में मरी जाए कि कहीं फ्रॉक पर दाग न लग जाए।
मुंबई की उस लड़की का इस तरह पीरियड की वजह से मर जाना बहुत पीड़ादायक है। लेकिन यह घटना इस समाज की हकीकत बयां कर रही है। इस आईने में हम अपनी शक्ल देखें तो एक बेहद कूपमंडूक, जाहिल और अज्ञानता के गर्त में डूबे समाज का अक्स दिखेगा।
हम मंगल ग्रह पर पहुंचने का दावा कर रहे हैं, विश्व गुरु होने का घमंड पाले हैं और हमारे देश में आज भी लड़कियां पीरियड के शर्म और डर से आत्महत्या कर रही हैं। क्योंकि हम आज भी स्कूली पाठ्यक्रम में जीवन की ये बेहद जरूरी और बुनियादी बातें अपने बच्चों को नहीं सिखा रहे हैं।
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