“स्वतंत्र हूँ,पर रिवाजों से परतंत्र हूँ”
✍🏻…स्वतंत्र हूँ पर आज भी परतंत्र हूँ,आज भी ऐसे कई रिवाजों से घिरी इस पुरुष प्रधान समाज में अपने अस्तित्व को कुचलने से बचाने में लगी हूँ,कुछ ऐसी ही व्यथा हम महिलाओं कि है जो कुछ करने,बनने का जोश लेकर घर की चारदीवारी से बाहर आती है।कहने को हमारे लोकतांत्रिक देश में हम महिलाओं को कितने ही अधिकार दे दिये जाये,पुरुषों के समान उन्हें वो सभी हक़ देने का हम दंभ भरे लेकिन वास्तविकता के धरातल पर ये सभी बातें खोखली जान पड़ती है।आज भी हम आगे बढ़ने के लिए पुरुषों की रज़ामंदी पर निर्भर है।आज भी कितने ही ऊँचे पद पर हम पहुँच जाये,हमारी जड़े ज़ंजीरों से जकड़ी हुई है।शिक्षा के माध्यम से आज जीवन का कोई क्षेत्र अछूता नहीं है जहाँ हम महिलाओं ने कामयाबी का परचम न लहराया हों,लेकिन आज भी पुरुष हमारे पंख काटने के लिए यौन उत्पीड़न का सहारा ले रहे है।महिलायें आज कितने ही बड़े पद पर आसीन क्यूँ न हो जाये उसके आस-पास ऐसे लोगों का जमावड़ा रहता है जो उसे किसी न किसी प्रकार नीचे धकेलने में लगे रहते है।शरीर को मात्र आगे बढ़ने का माध्यम बना कर रखा है।इस खेल में बड़े बड़े लोग लिप्त रहते है।फिर हम किससे न्याय की अपेक्षा करें जब न्याय व्यवस्था ही ऐसे दुष्टों के हाथों में है।ऐसी परिस्थितियों में क्या हम महिलाओं को कभी न्याय मिलेगा जो अपने सपनों को पूरा करने के लिए घर की चारदीवारी से बाहर आ रही है?
✍🏻…डॉ.अजिता शर्मा
उदयपुर
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