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सेहतनामा- आपकी पसंदीदा पार्टी चुनाव हार गई तो:अगले 30 मिनट में आपके शरीर के साथ क्या हो सकता है, बचाव के लिए क्या करें

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सेहतनामा- आपकी पसंदीदा पार्टी चुनाव हार गई तो:अगले 30 मिनट में आपके शरीर के साथ क्या हो सकता है, बचाव के लिए क्या करें

सेहतनामा की स्टोरी में पार्टी, चुनाव, पॉलिटिक्स का जिक्र सुनकर कहीं आप चौंक तो नहीं गए। आप सोच रहे होंगे कि इन सब चीजों का भला हमारी सेहत से क्या कनेक्शन।

दरअसल कनेक्शन है और वह भी काफी गहरा।

नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित एक सर्वे के मुताबिक वर्ष 2016 के अमेरिकन प्रेसिडेंशियल इलेक्शन के दौरान वहां अचानक डिप्रेशन, एंग्जाइटी और स्ट्रेस के केसेज काफी बढ़ गए थे।

जर्मन साइकोलॉजिस्ट एलिस मिलर अपनी किताब ‘द बॉडी नेवर लाइज’ में लिखती हैं, “विश्व युद्ध तो खत्म हो गया, लेकिन उसकी त्रासदी से उबरने में देश को तीस साल लगे। युद्ध के दौरान और उसके बाद पैदा हुई पीढ़ियां शारीरिक और मानिसक सेहत से जुड़ी चुनौतियां का सामना कर रही थीं।”

दुनिया भर में हुई कई हेल्थ स्टडीज इस बात की ताकीद करती हैं कि हमारी मानसिक और शारीरिक सेहत का देश की राजनीतिक स्थिति से सीधा कनेक्शन है।

तो चलिए, सेहतनामा में आज बात करते हैं पॉलिटिक्स और हेल्थ की।

दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र का सबसे बड़ा चुनाव
आज दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र के चुनाव के नतीजे आने वाले हैं। सुबह से ही एंकर, रिपोर्टर सज-धजकर न्यूजरूम में जम चुके हैं और घरों में अपने टेलीविजन और मोबाइल स्क्रीन के सामने आप। हर निगाह चुनाव के नतीजों पर टिकी है। दिलों की धड़कनें बढ़ी हुई हैं।

हर किसी की अपनी फेवरेट पार्टी और पसंदीदा कैंडिडेट है। कुछ ही घंटों में यह तय हो जाएगा कि किसका दिल बल्लियों उछलेगा और किसका दिल टूट जाएगा। किसके घर शाम को मिठाइयां बंट रही होंगी, तो किसके घर मुर्दनी छाई होगी।

यह सिर्फ राजनीतिक पार्टियों के दफ्तरों और कार्यकर्ताओं की बात नहीं है। आम नागिरकों की बात है। उनकी खुशी और गम भी सीधे चुनाव के नतीजों से जुड़े हुए हैं।

क्या हो, अगर आपकी पसंदीदा पार्टी हार जाए
आप BJP या इंडिया गठबंधन, नरेंद्र मोदी या राहुल गांधी किसी के भी समर्थक हो सकते हैं। यहां सवाल राजनीतिक विचारधारा का नहीं है।

सवाल ये है कि अगर हमारी पसंदीदा पार्टी चुनाव हार जाए तो उसका हमारी शारीरिक और मानिसक सेहत पर क्या असर पड़ता है।

यह नेशनल लाइब्रेरी ऑफ मेडिसिन में प्रकाशित वर्ष 2017 में 4,99,201 लोगों पर की गई स्टडी के नतीजे हैं, जो कहती है कि पॉलिटिकल शॉक लगने पर शरीर में ये फिजियोलॉजिकल रिएक्शन हो सकते हैं-

BJP जीत जाए तो क्या कांग्रेस सपोर्टर का BP, शुगर बढ़ जाएगा
किसी को यह बात सुनने में थोड़ी अजीब भी लग सकती है। BJP जीत जाए तो क्या कांग्रेस सपोर्टर का BP, शुगर, स्ट्रेस, एंग्जाइटी सब बढ़ जाएगा या इसका उलटा। कांग्रेस जीते तो BJP वालों का।

जरूरी नहीं कि ऐसा हो। लेकिन ऐसा हो सकने की ठोस वजह है और वह वजह है आपकी इम्यूनिटी और इमोशनल हेल्थ।

डॉ. गाबोर माते पूरी दुनिया में ख्यात कनाडा के डॉक्टर और ट्रॉमा स्पेशलिस्ट हैं। पिछले साल प्रकाशित और न्यूयॉर्क टाइम्स बेस्टसेलर अपनी किताब ‘द मिथ ऑफ नॉर्मल: ट्रॉमा, इलनेस एंड हीलिंग इन ए टॉक्सिक कल्चर’ में वे लिखते हैं, “हमारे शरीर की फिजियोलॉजिकल मशीनरी हमारे ब्रेन और सेंट्रल नर्वस सिस्टम से जुड़ी हुई है। मेडिसिन की सबसे बड़ी दुविधा और अंतर्विरोध ये है कि हमने कभी भी मन और शरीर को एक इंटिटी की तरह देखा ही नहीं। बुखार होने पर डॉक्टर कभी ये नहीं पूछता कि मन कैसा है। खुश तो हो न। जबकि शरीर में होने वाला हर रिएक्शन, हर बीमारी सीधे हमारे मन की खुशी से जुड़ी होती है।”

अमेरिका की अर्थव्यवस्था को 278 अरब डॉलर का नुकसान
रॉबर्ट वुड जॉनसन फाउंडेशन अमेरिका में स्वास्थ्य पर काम करने वाली एक संस्था है। फाउंडेशन की एक रिपोर्ट कहती है कि अमेरिका में राजनीतिक ध्रुवीकरण से एक बड़ी आबादी के साथ जो सेहत संबंधी चुनौतियां पैदा हुईं, उससे वर्ष 2016 से 2020 के बीच अमेरिकी अर्थव्यवस्था को 278 अरब डॉलर का नुकसान हुआ।

यह रिपोर्ट डीटेल में बताती है कि राजनीतिक कारणों से बीमारियों का अनुपात बढ़ा। इनमें स्ट्रेस, एंग्जाइटी, डिप्रेशन, हाइपरटेंशन, डायबिटीज, कैंसर और ऑटो इम्यून बीमारियां शामिल हैं।

शरीर को खतरा इसलिए क्योंकि आपके दिल को धक्का लगा है
डॉ. गाबोर माते लिखते हैं कि राजनीतिक कारणों से जब हमें इमोशनल शॉक लगता है तो वह शॉक शरीर के लिए भी खतरनाक हो सकता है।

हेल्थ रिस्क इसलिए है क्योंकि आप जिस भी पार्टी को सपोर्ट करते हैं, उसकी जीत में आप अपना और देश का भविष्य देखते हैं। वहां आपकी उम्मीदें टिकी होती हैं। पार्टी की हार का अर्थ है उम्मीदों का टूटना। अटैचमेंट जितना गहरा होगा, शॉक भी उतना गहरा लगेगा।

क्या करें कि हार के बाद भी न टूटे दिल
न्यूयॉर्क टाइम्स कॉलमिस्ट और राइटर मिशेल गोल्डबर्ग ने 2016 में एक आर्टिकल लिखा- ‘फिअर, एंग्जाइटी एंड डिप्रेशन इन द एज ऑफ ट्रंप।’ इस आर्टिकल में एक जगह साइकिएट्रिस्ट के हवाले से वो कहते हैं कि सिर्फ एक ही चीज हमें राजनीतिक अवसाद से बचा सकती है और वो है उम्मीद और पॉजिटिविटी।

जीवन में ऐसा कब होता है कि सबकुछ हमारी मर्जी, हमारी अपेक्षा के मुताबिक हो। राजनीति भी उसका अपवाद नहीं है। आज किसी और की पार्टी जीती है तो कल आपकी भी जीत सकती है।

रोज बदल रही दुनिया में सिर्फ परिवर्तन सत्य है। कुछ भी स्टैटिक नहीं रहता। दुनिया रोज बदल रही है।

भारत का लोकतंत्र 77 साल पुराना है। इन 77 सालों में जाने कितनी बार चुनाव हुए, कितनी पार्टियां जीतीं और हारीं, कितनी सत्ताओं ने जीत का शिखर और हार का धरातल देखा। सच यही है कि कुछ भी शाश्वत नहीं है।

ये भी सच है कि देश की राजनीतिक स्थितियां सीधे हमारे जीवन को प्रभावित करती हैं। रोजगार, महंगाई, स्वास्थ्य, शिक्षा, सुरक्षा से हमारी सेहत तय होती है।

इसलिए लोकतंत्र में अपनी हिस्सेदारी को मजबूत रखना चाहिए और उससे भी ज्यादा मजबूत बनाए रखनी चाहिए अपनी उम्मीद।

अपनी सेहत का ख्याल रखें। अगर नतीजे आपकी अपेक्षाओं के उलट आ रहे हैं तो एक गिलास ठंडा पानी पिएं और मन को शांत रखें। अगर ज्यादा ट्रिगर्ड महसूस कर रहे हैं तो टीवी बंद कर दें और अपने दोस्तों, परिवारजनों से बात करें।

अपनी सेहत का ख्याल रखें और आज चाहे जो भी पार्टी जीते, इस उम्मीद की मशाल को आप बुझने न दें कि भारतीय लोकतंत्र को कोई एक पार्टी, कोई ध्रुवीकरण की राजनीति हरा नहीं सकती।

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